जिस अतीत के गर्भ गृह से
वर्त्तमान आज आया है
उस अतीत की कीमत को
कब हमने पहचाना है
जो बीत गई सो बात गई
भूला सब कुछ जो रात गई
कह कह हर दम दुत्कारा है
कब जननी सा उसको माना है
क्या भूल सकेगा वृक्ष कभी
कुटिल पतझड़ की चालों को
टूटे पत्ते , सुखी कलियाँ
अधःपतित उन अंशो को
पूछ सको तो पूछो उससे
अश्रू पूरित उन यादों को
लाखो बसंत आए और गए
क्या मिटा सके उन घावों को
जाकर उस बगिया से पूछो
वह कयूं कर फूल खिलाती है
हर खिली कलि के आगे
कयूं कोयल तान सुनती है
यह विस्मरण नही उन फूलों का
यह श्रधा अर्पण बगिया का
सुखा पुष्प उन कलियों में
नवजीवन फिर पता है
देख जीवंत उस अतीत को
फिर भौरा राग सुनाता है
क्या छूट सकेगा मोह नदी का
निर्मल निश्छल वारी से
बह गए है जो दूर कही
काल चक्र की नियति से
आगंतुक बूंदों को वह
कयूं कर गले लगाती है
शायद समझ पूर्व का अनुचर
ही उसको अपनाती है
जो बीत गई सो छोड़ गई
चाँद यादें जब भोर भई
जो जीवन धारा मोड़ गई
हर एक सीमा को तोड़ गई
Monday, August 17, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत खूब!....एकदम सरल और भाव पूर्ण.
ReplyDeleteSimply outstanding...
ReplyDeleteyeh ap nai likh sakte
ReplyDeleteI must once again say that it's outstanding and belong to a high class!!!
ReplyDelete