Monday, August 17, 2009

जो बीत गई वो छोड़ गई

जिस अतीत के गर्भ गृह से
वर्त्तमान आज आया है
उस अतीत की कीमत को
कब हमने पहचाना है

जो बीत गई सो बात गई
भूला सब कुछ जो रात गई
कह कह हर दम दुत्कारा है
कब जननी सा उसको माना है

क्या भूल सकेगा वृक्ष कभी
कुटिल पतझड़ की चालों को
टूटे पत्ते , सुखी कलियाँ
अधःपतित उन अंशो को
पूछ सको तो पूछो उससे
अश्रू पूरित उन यादों को
लाखो बसंत आए और गए
क्या मिटा सके उन घावों को

जाकर उस बगिया से पूछो
वह कयूं कर फूल खिलाती है
हर खिली कलि के आगे
कयूं कोयल तान सुनती है
यह विस्मरण नही उन फूलों का
यह श्रधा अर्पण बगिया का
सुखा पुष्प उन कलियों में
नवजीवन फिर पता है
देख जीवंत उस अतीत को
फिर भौरा राग सुनाता है

क्या छूट सकेगा मोह नदी का
निर्मल निश्छल वारी से
बह गए है जो दूर कही
काल चक्र की नियति से
आगंतुक बूंदों को वह
कयूं कर गले लगाती है
शायद समझ पूर्व का अनुचर
ही उसको अपनाती है

जो बीत गई सो छोड़ गई
चाँद यादें जब भोर भई
जो जीवन धारा मोड़ गई
हर एक सीमा को तोड़ गई

4 comments:

  1. बहुत खूब!....एकदम सरल और भाव पूर्ण.

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  2. I must once again say that it's outstanding and belong to a high class!!!

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