कमल कोरक सी कोमल कविता ,
निशा मध्य हो जैसे सविता
कलाकेलि के कलाशाला की
कलातीत वो कला कृति है
मै कवर पूछ वो कलापिनी है
रिपु समक्ष वो कपर्दिनी है
कमल नाभ के कर कमलो की
कुसुमित वो कता कृति है
चाहत मेरी कंत बनूँ मै
बने वो कांता मेरी
कपिल द्युति की कपिला कारण
बन जाये चाहे रणभेरी
Sunday, October 4, 2009
Tuesday, August 25, 2009
To my all Students
कठिन है रास्ता राह कटीली,
तब भी तुमको चलना है |
किए जो वादे तुमने ख़ुद से ,
उसको आज निभाना है |
कही निकट है मंजिल तेरी ,
अब तो दौड़ लगाना है |
गिर पड़े तो उठ के भागो,
सबसे आगे जाना है |
कर के विश्वास ख़ुद पर अब ,
हर एक कदम बढ़ाना है |
मंजिल चाहे दूर हो कितनी ,
हर हालत में पाना है |
तब भी तुमको चलना है |
किए जो वादे तुमने ख़ुद से ,
उसको आज निभाना है |
कही निकट है मंजिल तेरी ,
अब तो दौड़ लगाना है |
गिर पड़े तो उठ के भागो,
सबसे आगे जाना है |
कर के विश्वास ख़ुद पर अब ,
हर एक कदम बढ़ाना है |
मंजिल चाहे दूर हो कितनी ,
हर हालत में पाना है |
Tuesday, August 18, 2009
कल और आज
कल तक जो अपना सा था
आज किसी का हो गया
जैसे रात अमावास में
चाँद कही है खो गया
छाँव में जिसके पलकर मैं
सब कुछ था जो भूल गया
जाने किस पतझड़ में आज
वो हरित है सूख गया
जिस पनघट ने मेरे कारण
जल सोता था खोल दिया
आज उसी पनघट पर मैं
कयूं प्यासा ही रह गया
रिश्तों की इस भीड़ को
जाने अब क्या हो गया
हरे भरे इस आँगन में
मैं आज पराया हो गया
आज किसी का हो गया
जैसे रात अमावास में
चाँद कही है खो गया
छाँव में जिसके पलकर मैं
सब कुछ था जो भूल गया
जाने किस पतझड़ में आज
वो हरित है सूख गया
जिस पनघट ने मेरे कारण
जल सोता था खोल दिया
आज उसी पनघट पर मैं
कयूं प्यासा ही रह गया
रिश्तों की इस भीड़ को
जाने अब क्या हो गया
हरे भरे इस आँगन में
मैं आज पराया हो गया
वो गाड़ी
वो गाड़ी जब सामने से गुजरती है
अन्तः करण पर दस्तक तब होती है
जो प्रेरणा देती है हर्षद बनने की
या किसी नटवर की याद दिलाती है
उतर कर धरातल पर सोचता हूँ
अन्दर के इंसान को खोजता हूँ
जो अब कही गुम हो रहा है
दूर अंधेरे में खो रहा है
इससे पहले की उसको तलाशता
आस्था की संजीवनी पिलाता
एक नई गाड़ी फिर गुजरती है
नई दस्तक भी होती है
वो इंसान गम हो जाता है
वो किसी आदमी में बदल जाता है
अन्तः करण पर दस्तक तब होती है
जो प्रेरणा देती है हर्षद बनने की
या किसी नटवर की याद दिलाती है
उतर कर धरातल पर सोचता हूँ
अन्दर के इंसान को खोजता हूँ
जो अब कही गुम हो रहा है
दूर अंधेरे में खो रहा है
इससे पहले की उसको तलाशता
आस्था की संजीवनी पिलाता
एक नई गाड़ी फिर गुजरती है
नई दस्तक भी होती है
वो इंसान गम हो जाता है
वो किसी आदमी में बदल जाता है
Monday, August 17, 2009
जो बीत गई वो छोड़ गई
जिस अतीत के गर्भ गृह से
वर्त्तमान आज आया है
उस अतीत की कीमत को
कब हमने पहचाना है
जो बीत गई सो बात गई
भूला सब कुछ जो रात गई
कह कह हर दम दुत्कारा है
कब जननी सा उसको माना है
क्या भूल सकेगा वृक्ष कभी
कुटिल पतझड़ की चालों को
टूटे पत्ते , सुखी कलियाँ
अधःपतित उन अंशो को
पूछ सको तो पूछो उससे
अश्रू पूरित उन यादों को
लाखो बसंत आए और गए
क्या मिटा सके उन घावों को
जाकर उस बगिया से पूछो
वह कयूं कर फूल खिलाती है
हर खिली कलि के आगे
कयूं कोयल तान सुनती है
यह विस्मरण नही उन फूलों का
यह श्रधा अर्पण बगिया का
सुखा पुष्प उन कलियों में
नवजीवन फिर पता है
देख जीवंत उस अतीत को
फिर भौरा राग सुनाता है
क्या छूट सकेगा मोह नदी का
निर्मल निश्छल वारी से
बह गए है जो दूर कही
काल चक्र की नियति से
आगंतुक बूंदों को वह
कयूं कर गले लगाती है
शायद समझ पूर्व का अनुचर
ही उसको अपनाती है
जो बीत गई सो छोड़ गई
चाँद यादें जब भोर भई
जो जीवन धारा मोड़ गई
हर एक सीमा को तोड़ गई
वर्त्तमान आज आया है
उस अतीत की कीमत को
कब हमने पहचाना है
जो बीत गई सो बात गई
भूला सब कुछ जो रात गई
कह कह हर दम दुत्कारा है
कब जननी सा उसको माना है
क्या भूल सकेगा वृक्ष कभी
कुटिल पतझड़ की चालों को
टूटे पत्ते , सुखी कलियाँ
अधःपतित उन अंशो को
पूछ सको तो पूछो उससे
अश्रू पूरित उन यादों को
लाखो बसंत आए और गए
क्या मिटा सके उन घावों को
जाकर उस बगिया से पूछो
वह कयूं कर फूल खिलाती है
हर खिली कलि के आगे
कयूं कोयल तान सुनती है
यह विस्मरण नही उन फूलों का
यह श्रधा अर्पण बगिया का
सुखा पुष्प उन कलियों में
नवजीवन फिर पता है
देख जीवंत उस अतीत को
फिर भौरा राग सुनाता है
क्या छूट सकेगा मोह नदी का
निर्मल निश्छल वारी से
बह गए है जो दूर कही
काल चक्र की नियति से
आगंतुक बूंदों को वह
कयूं कर गले लगाती है
शायद समझ पूर्व का अनुचर
ही उसको अपनाती है
जो बीत गई सो छोड़ गई
चाँद यादें जब भोर भई
जो जीवन धारा मोड़ गई
हर एक सीमा को तोड़ गई
याद मुझे वो आते है
खेल खेल में , राग द्वेष में
जाने कितने लोग मिले ,
कुछ लोगो ने पागल समझा
कुछ लोगो से स्नेह मिले
कुछ दिल की बात दबा होठो पर
आहें भर कर मान दिया
कब मैंने उनसे नेह किया
जीवन भर उनको कस्ट दिया
बहती हुई सरिता दिखा
दो बूँद जल का दान किया
कितनो के संग कितने सपने
दिन और रात के देखे हमने
उनमे कितने भूल गए हम
कितनो ने दम तोडा मन में
जिनको थे हम भूल चुके
याद हमें वो आते है
जिनका हमने दामन छोड़ा
संग संग मेरे गाते है
काश की मै समझ ये पाता
कयूं अपनों से वो लगते है
हाथ बढाकर जिनको हमने
बीच नदी में छोड़ दिया
आज खडे हो तट पर हम
उन्ही को पुकारा करते है
जाने कितने लोग मिले ,
कुछ लोगो ने पागल समझा
कुछ लोगो से स्नेह मिले
कुछ दिल की बात दबा होठो पर
आहें भर कर मान दिया
कब मैंने उनसे नेह किया
जीवन भर उनको कस्ट दिया
बहती हुई सरिता दिखा
दो बूँद जल का दान किया
कितनो के संग कितने सपने
दिन और रात के देखे हमने
उनमे कितने भूल गए हम
कितनो ने दम तोडा मन में
जिनको थे हम भूल चुके
याद हमें वो आते है
जिनका हमने दामन छोड़ा
संग संग मेरे गाते है
काश की मै समझ ये पाता
कयूं अपनों से वो लगते है
हाथ बढाकर जिनको हमने
बीच नदी में छोड़ दिया
आज खडे हो तट पर हम
उन्ही को पुकारा करते है
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